सरकारी मशीनरी के बलबुते कोरोना महामारी से निपटना संभव नहीं : पारस प्रताप सिंह 

( लेखक युवा समाजसेवी है एवं देश की कई प्रसिद्ध सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं)

यह भारत के लोकतंत्र का बहुत निराशाजनक पहलू है कि, हमारे राजनेता बोलते बहुत अच्छा-अच्छा है, पर अधिकतर नेता करते उसके विपरीत ही है। इसका उदाहरण स्वरूप हम पंचायत की संस्थाओं को देख सकते है। आज ग्राम सुधार हेतु तमाम घोषणायें, संकल्पों, और वादों के बावजूद अब तक इन संस्थाओं के हाथ अधिकारों के नाम पर झुनझुनों से ज्यादा कुछ नहीं थमाया गया। जो बचा कुचा हुआ वह इनको दे दिया जाता है।


हम देखें तो आजादी के 74 सालों के बाद शायद इस गंभीर कोरोना महामारी ने हम सबको आवाज उठाने व सरकार को मौका दिया है कि, ठेठ ग्राम स्तर पर काम करने वाले पंच, संरपंच उपसरपंच आदि जन प्रतिनिधियों को साथ लिया जाए। क्योंकि यह ही प्रत्यक्ष हमेशा जनता के बीच, उनके सबसे नजदीक व सुख-दुख में साथ होते है। हम देख रहे है कि, आज ज्यादातर बडे नेताओं व जन प्रतिनिधियों ने आम जनता को भगवान भरोसे  छोडकर लापता से हो गए है। जबकि अब कोरोना गांव स्तर पर तेजी से फैल रहा है। मुझे लगता है कि इन पंचायत स्तर के जनप्रतिनिधियों को  कुछ अधिकार दिए जाएं तो वे जनता को इस महामारी से संघर्ष के लिए न सिर्फ तैयार करेंगे, बल्कि परास्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।

इस कोरोना महामारी ने बाहर शहरों व महानगरों में काम करने वाले मजदूर मजबूर  होकर अब गाँव लौट रहे है। अब हम देखते है कि  पंच-संरपंचों को समझ नहीं आता कि बिना अधिकारों, बिना साधनों के वे कैसे उनकी सहायता कर सकें। वे चाह कर भी इंतजाम नहीं कर पा रहे। आज शासन की नीति भी इनके बिना सही तरीके से लागू नहीं हो पा रही है।
आज इनको बहुत निम्न समझा जाने लगा है लेकिन जनता के बीच काम करने वाले पंचों व संरपंचों को कम नहीं आंका जा सकता। यदि शासन को कुछ अतिरिक्त अधिकार देने पडे तो कुछ नहीं बिगडें, हो सकता है कि गायब होती पंचायत रात की असली ताकत इसी बहाने से आ जाए। मुझे लगता है कि, सरकारी मशीनरी केे बलबुते इस महामारी से निपटना संभव नहीं है।


पारस प्रताप सिंह
(समाजसेवी)

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