हमारा मनोरंजन जिंदगी से बड़ा नही है, हमारी लापरवाही और सरकार की अनदेखी तीसरी लहर का बुलावा साबित न हो जाए?

लेखक : पारस प्रताप सिंह ( समाजसेवी, सलाहकार जन जल जोड़ो अभियान)
9009739338


कोरोना की पहली और दूसरी लहर के बीच जो कुछ हमने भोगा है, उसे हमें भूलने की बड़ी जल्दी है, मन में अजीब छटपटाहट सी है। क्योंकि कॉरोना के दौरान हमारा जाना पहचाना सब कुछ शरीर के वस्त्र की तरह तंग हो गया था। जैसे शून्य हो जाना। इस समय ने बहुत सिखाया भी और बहुत रुलाया भी।
अब हम उससे बाहर आ रहे हैं, लेकिन बहुत लापरवाही के साथ। हमारे जीवन की रक्षा या आत्मरक्षा की जो जिम्मेदारी हम पर है! खुद पर है! उसका क्या हुआ?
हम देख रहे हैं कि, सरकार तो कारोना पर जीत की घोषणा करके अपनी पीठ थपथपा रही हैं, जैसे पहले लहर के बाद थपथपाई थी लेकिन भुगतना आखिर हमें ही है। सरकारों को जैसे सिर्फ एक कला सी आने लगी है, मौत के आंकड़े छुपाना, पॉजिटिव केस की संख्या कम बताना। गांवो में आज हालात कितने खराब है, तीसरी लहर से सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे होंगे, ऐसा डॉक्टर कह रहे है लेकिन बच्चों के डॉक्टर ही गांवो में नहीं है। जिला और तहसील स्तर भी बच्चों के डॉक्टर बहुत कम ही मिलते है। लेकिन सरकारें शहरों के कुछ अस्पतालों में कुछ सुविधा बड़ा कर संतुष्ट है और उसी में वाहे वाही लूट रही है। युद्ध स्तर पर अभी जो काम करने का वक्त था सरकार ने गवा सा दिया है। प्रशासन भी सरकारों के आगे बहुत मौन है। शायद ऐसे हाल में भी अगर हम खुद की चिंता नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा?
इस करोना कॉल में हमने इतनी अपनों करीबियों और जान पहचान वालों को गवाया है कि, गिनती करना मुश्किल है लेकिन फिर भी आज हम सब कुछ भूल कर घूमने फिरने कैसे निकल सकते हैं? इतनी लापरवाही कैसे कर सकते है? कितनी भीड़ होती है वहां – तहां। वहां मौजूद लोग हर पल हम से टकराते हैं, मिलते हैं पता भी नहीं उन लोगों में से किसने बबैक्सिन का पहला डोज लिया है? किसने दोनों लिए हैं? किसने लिया भी नहीं है? हमें कुछ पता नहीं फिर भी आधे अधूरे मास्क लगाकर फिर से लोगों के बीच जाने से हमें परहेज नहीं। क्या हमें मनोरंजन जिंदगी से बड़ा हो गया? वैज्ञानिक और डॉक्टर चेतावनी देते देते थक गए हैं कि, इस तरह भीड़ में जाना या फिर करना किसी लहर को न्योता देना जैसा है लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं। कोई मानने को राजी नहीं। लेकिन आखिर जीवन हमारा है और इसे बचाने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है।
सरकारों का हिसाब किताब तो हम सब देख ही चुके हैं और देख रहे है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता! पड़ना भी नहीं चाहिए क्योंकि वे भी स्थाई नहीं होती, आती जाती रहती हैं। लेकिन हमारा जीवन अक्षम है, अटल है और अमूल्य भी है। वह सरकारों की तरह नहीं हो सकता, आया राम गया राम तो बिल्कुल भी नहीं। ठीक है अभी बारिश का मौसम है, आसपास के झरना नदियां हमें बुला रहे हैं । लेकिन यह बारिश, झरने बाद में भी बुलाएंगे। लेकिन हमारा जीवन दोबारा आने वाला नही है। यह हमारी असल संपति है। इसकी रक्षा हमे खुद ही करनी होगी, कोई दूसरा मदद के लिए आने वाला नही है।

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